Stories of Lord Ganesha in Hindi | गणेश जी की चर्चित कहानियाँ

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मैं आपके लिए गणेश चतुर्थी पर गणेश जी की कुछ कहानियाँ (Stories of Lord Ganesha in Hindi) एक ब्लॉग पोस्ट के रूप मे लेकर आया हूँ। इस ब्लॉग पोस्ट मे हम चार कहानियाँ लेकर आए है – चंद्रमा को गणेश जी का श्राप, गणेश जी का हाथी वाला सिर, माता-पिता ही संसार, कुबेर को अहंकार की सीख ।

Stories of Lord Ganesha in Hindi गणेश जी की चर्चित कहानियाँ

Stories of Lord Ganesha in Hindi | गणेश जी की चर्चित कहानियाँ

चंद्रमा को गणेश जी का श्राप

गणेश जी से जुड़ी कई कहानियाँ प्रचलित हैं, जिनमें से एक है – चंद्रमा को गणेश जी का श्राप। यह कथा न केवल रोचक है बल्कि इसमें छिपा संदेश जीवन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। इस कहानी को पढ़ने से हमें समझ आता है कि किसी का अपमान करना कितना बड़ा अपराध है।

चंद्रमा को गणेश जी का श्राप

कहानी – चंद्रमा को गणेश जी का श्राप

एक समय की बात है। भाद्रपद मास की चतुर्थी को गणेश जी का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था। सभी देवता, ऋषि-मुनि और भक्तगण उन्हें मिठाइयाँ, मोदक और लड्डू अर्पित कर रहे थे। गणेश जी भी प्रसन्न होकर सभी का आशीर्वाद दे रहे थे।

पूजा सम्पन्न होने के बाद गणेश जी अपने वाहन मूषक पर बैठकर भ्रमण के लिए निकले। वह रात का समय था और आकाश में शीतल चाँद अपनी चाँदनी बिखेर रहा था। गणपति बप्पा उस दिन लड्डुओं का भरपूर प्रसाद ग्रहण कर चुके थे, जिसके कारण उनका पेट और भी गोल-मटोल दिखाई दे रहा था।

जब वह अपने मूषक पर सवार होकर चल रहे थे, तभी मूषक अचानक किसी साँप को देखकर डर गया और भागते-भागते गिर पड़ा। इस कारण गणेश जी भी धड़ाम से नीचे गिर गए। उनका पेट फटने जैसा हो गया और लड्डू इधर-उधर बिखर गए।

यह दृश्य देखकर आकाश में बैठे चंद्रमा जोर-जोर से हँसने लगे। उनकी हँसी सुनकर गणेश जी को बहुत दुख हुआ। उन्होंने सोचा – “मैं विघ्नहर्ता हूँ, सभी मुझे श्रद्धा और प्रेम से पूजते हैं। लेकिन आज चंद्रमा ने मेरा उपहास उड़ाया है, यह तो अन्याय है।”

गणपति जी क्रोधित हो गए और चंद्रमा से बोले –
“हे चंद्रमा! आज तुमने मेरा अपमान किया है। इसलिए मैं तुम्हें श्राप देता हूँ कि आज के दिन जो कोई तुम्हारा दर्शन करेगा, उस पर झूठा कलंक लगेगा और वह समाज में अपमानित होगा।”

गणेश जी के श्राप से चंद्रमा तुरंत पीले और फीके पड़ गए। उनकी चमक खत्म हो गई। अब रात का आकाश अंधकारमय लगने लगा। देवताओं और ऋषियों ने जब यह दृश्य देखा तो वे बहुत चिंतित हुए। उन्होंने गणेश जी से प्रार्थना की –
“हे विघ्नहर्ता! चंद्रमा समस्त जगत को प्रकाश देने वाला है। यदि उसकी चमक सदा के लिए खत्म हो गई, तो सृष्टि का संतुलन बिगड़ जाएगा। कृपा कर अपने श्राप को शिथिल कीजिए।”

भक्तों और देवताओं की विनती सुनकर गणेश जी का हृदय पिघल गया। उन्होंने कहा –
“मेरा श्राप व्यर्थ नहीं जाएगा। परंतु मैं इसे शिथिल अवश्य करूँगा। अब से जो भी मनुष्य भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी की रात चंद्रमा का दर्शन करेगा, उस पर झूठा कलंक लगेगा। लेकिन यदि कोई भक्त अगले दिन ‘श्री गणेश कथा’ और ‘सत्यनारायण कथा’ सुनेगा तथा चंद्रदर्शन का प्रायश्चित करेगा, तो वह दोष से मुक्त हो जाएगा।”

तभी से गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रमा का दर्शन करना वर्जित माना जाता है।

कहानी से सीख

इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि किसी का भी उपहास उड़ाना अत्यंत अनुचित है। चाहे वह छोटा हो या बड़ा, सबका सम्मान करना चाहिए। अहंकार और मजाक से अपमानित करने पर गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।

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निष्कर्ष(Conclusion)

गणेश चतुर्थी की कहानी – चंद्रमा को गणेश जी का श्राप हमें सिखाती है कि विनम्रता और दूसरों का सम्मान करना जीवन की सबसे बड़ी अच्छाई है। गणेश जी न केवल विघ्नहर्ता हैं बल्कि हमें धर्म, संयम और सदाचार का मार्ग भी दिखाते हैं।

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गणेश जी का हाथी वाला सिर

गणेश चतुर्थी (Ganesh Chaturthi) के अवसर पर गणेश जी की कहानियाँ सुनना और सुनाना बहुत शुभ माना जाता है। भगवान गणेश जी का हाथी वाला सिर क्यों है, इसके पीछे एक गहरी और प्रेरणादायक कथा जुड़ी हुई है। इस कथा से हमें आज्ञा पालन, कर्तव्य निष्ठा और माँ-बाप के महत्व का संदेश मिलता है।

गणेश जी का हाथी वाला सिर

गणेश जी का जन्म और माता पार्वती का आदेश

एक बार माता पार्वती जी स्नान करना चाहती थीं। उन्होंने अपनी देह से उबटन बनाकर एक बालक की आकृति तैयार की और उसमें प्राण डाल दिए। यही बालक आगे चलकर गणेश जी (Ganesh Ji) के नाम से प्रसिद्ध हुए।

पार्वती जी ने गणेश जी से कहा –
“बेटा, मैं स्नान करने जा रही हूँ। इस बीच कोई भी व्यक्ति भीतर न आए, चाहे वह कोई भी क्यों न हो।”

गणेश जी ने अपनी माँ के आदेश को शिरोधार्य मान लिया और दरवाज़े पर पहरा देने लगे। यह उनकी माँ के प्रति श्रद्धा और आज्ञाकारिता का प्रतीक था।

कुछ समय बाद भगवान शिव वहाँ पहुँचे। वे माता पार्वती से मिलना चाहते थे, लेकिन गणेश जी ने उन्हें रोक दिया।
गणेश जी ने कहा –
“माँ ने आदेश दिया है कि जब तक वे स्नान पूरा न कर लें, कोई भीतर प्रवेश नहीं कर सकता।”

शिव जी ने समझाया –
“मैं तुम्हारे पिता हूँ, मुझे अंदर जाने दो।”
लेकिन गणेश जी अपने कर्तव्य पर अडिग रहे और बोले –
“माँ का आदेश मेरे लिए सबसे बड़ा है। जब तक वे अनुमति न दें, कोई भी अंदर नहीं जा सकता।”

गणेश जी के इस अटल निर्णय से भगवान शिव क्रोधित हो गए। उन्होंने अपने गणों को आदेश दिया कि वे बालक को हटाएँ। लेकिन गणेश जी ने वीरता और साहस के साथ सभी गणों का सामना किया। वे अकेले ही सब पर भारी पड़ गए।

अंत में शिव जी ने क्रोधित होकर अपने त्रिशूल से गणेश जी का सिर धड़ से अलग कर दिया। इस घटना से समस्त लोक में सनसनी फैल गई।

जब पार्वती जी बाहर आईं और देखा कि उनके पुत्र का सिर कट चुका है, तो वे अत्यंत दुखी और क्रोधित हो गईं। उन्होंने कहा –
“यदि मेरे पुत्र को जीवित नहीं किया गया तो मैं पूरे सृष्टि का नाश कर दूँगी।”

उनके क्रोध से तीनों लोक काँपने लगे। तब सभी देवताओं और स्वयं भगवान विष्णु ने भी आकर शिव जी से निवेदन किया कि गणेश जी को पुनः जीवित करें।

शिव जी ने अपने गणों को आदेश दिया कि वे उत्तर दिशा में जाएँ और जिस प्राणी का सिर सबसे पहले मिले, उसे ले आएँ। गणों ने देखा कि वहाँ एक हाथी अपने बच्चे के साथ खड़ा है। उन्होंने बाल हाथी का सिर लाकर शिव जी को दिया।

भगवान शिव ने उस सिर को गणेश जी के धड़ पर स्थापित कर दिया और अपने दिव्य वरदान से उन्हें जीवित कर दिया।

पुनर्जन्म के बाद भगवान शिव और माता पार्वती ने गणेश जी को आशीर्वाद दिया कि वे सभी देवताओं में प्रथम पूज्य (Pratham Pujya Ganesh Ji) कहलाएँगे। किसी भी पूजा या शुभ कार्य से पहले उनकी वंदना की जाएगी। तभी से गणेश जी को विघ्नहर्ता, सिद्धिदाता और प्रथम पूज्य देवता माना जाता है।

कहानी से सीख (Moral of the Story)

माता-पिता की आज्ञा सर्वोपरि है – गणेश जी ने अपने प्राणों की आहुति देकर भी माता पार्वती का आदेश नहीं तोड़ा।

कर्तव्य के प्रति निष्ठा – चाहे कितनी भी कठिन परिस्थिति हो, अपने कर्तव्य से पीछे नहीं हटना चाहिए।

क्षमा और करुणा – शिव जी ने गलती का एहसास होने पर गणेश जी को नया जीवन दिया और उन्हें सबसे बड़ा सम्मान प्रदान किया।

गणेश जी का हाथी वाला सिर इस बात का प्रतीक है कि हर कठिनाई के बाद एक नया अवसर मिलता है।

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निष्कर्ष (Conclusion)

गणेश जी का हाथी वाला सिर (Ganesh Ji Ka Haathi Wala Sir) की यह कथा न केवल पौराणिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि जीवन के गहरे सत्य भी सिखाती है। गणेश जी हमें यह संदेश देते हैं कि कर्तव्य और माता-पिता का सम्मान जीवन की सबसे बड़ी शक्ति है। इसलिए हर गणेश चतुर्थी और शुभ अवसर पर सबसे पहले गणेश जी की पूजा की जाती है।

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माता-पिता ही संसार: गणेश जी की अनोखी शिक्षा

भगवान गणेश जी की कहानियों में गहरे जीवन संदेश छिपे होते हैं। इन्हीं कथाओं में से एक प्रसिद्ध और प्रेरणादायक कहानी है – “माता पिता ही संसार गणेश जी”। यह कथा हमें बताती है कि माता-पिता का स्थान पूरे संसार से बढ़कर है और उनकी सेवा ही सबसे बड़ी पूजा है।

माता-पिता ही संसार गणेश जी की अनोखी शिक्षा

कहानी : माता-पिता ही संसार

एक बार कैलाश पर्वत पर देवताओं की बड़ी सभा हुई। सभी देवता आपस में बातचीत कर रहे थे कि आखिर ब्रह्मांड में सबसे बड़ा कौन है। इस चर्चा का परिणाम यह हुआ कि एक प्रतियोगिता रखी गई। प्रतियोगिता के अनुसार जो देवता या पुत्र सबसे पहले पूरे संसार की परिक्रमा करके लौटेगा, वही सबसे महान कहलाएगा।

भगवान शिव और माता पार्वती के दोनों पुत्र – कार्तिकेय और गणेश जी भी इस प्रतियोगिता में शामिल हुए। कार्तिकेय स्वभाव से तेज, पराक्रमी और युद्धकला में निपुण थे। वहीं गणेश जी बुद्धिमान, विनम्र और ज्ञान के देवता माने जाते हैं।

जैसे ही प्रतियोगिता शुरू हुई, कार्तिकेय अपने तेज गति वाले वाहन मोर पर बैठकर तुरंत निकल पड़े। उनका विचार था कि वे शीघ्र ही पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा कर लेंगे और सबको सिद्ध कर देंगे कि वही सबसे श्रेष्ठ हैं।

दूसरी ओर गणेश जी का वाहन एक साधारण सा चूहा था। गणेश जी को समझ आ गया कि इस छोटे वाहन पर बैठकर वे कार्तिकेय से पहले पूरी दुनिया का चक्कर नहीं लगा पाएंगे। लेकिन गणेश जी बुद्धि के देवता थे। उन्होंने सोचा कि यदि ज्ञान का प्रयोग किया जाए तो बिना भागदौड़ के भी जीत हासिल की जा सकती है।

गणेश जी ने अपने मन में विचार किया – “संसार में माता-पिता से बड़ा कोई नहीं। वही मेरे लिए देवता हैं, वही ब्रह्मांड हैं। अगर मैं उनकी परिक्रमा कर लूँ, तो यह पूरे संसार की परिक्रमा के बराबर होगी।”

यह सोचकर गणेश जी ने अपने माता-पिता – भगवान शिव और माता पार्वती – की तीन बार श्रद्धा से परिक्रमा की और विनम्र भाव से उनके चरणों में प्रणाम किया।

इधर कार्तिकेय पूरी दुनिया की यात्रा करके जब लौटे तो वे थक चुके थे। लेकिन उन्हें विश्वास था कि उन्होंने जीत हासिल कर ली है। जैसे ही वे कैलाश पर्वत पहुंचे, उन्होंने देखा कि गणेश जी पहले से ही वहां मौजूद हैं और मुस्कुराते हुए माता-पिता के चरणों में बैठे हैं।

कार्तिकेय को यह देखकर आश्चर्य हुआ और उन्होंने नाराज़ होकर पूछा – “गणेश! तुम तो अपने चूहे पर बैठकर कहीं गए ही नहीं। फिर तुम मुझसे पहले यहां कैसे पहुँच गए?”

गणेश जी का उत्तर

गणेश जी ने बड़े ही शांत और ज्ञान से भरे स्वर में उत्तर दिया –
“भैया, आपके लिए संसार की परिक्रमा करना सबसे बड़ा कार्य था, इसलिए आप पूरी दुनिया घूम आए। लेकिन मेरे लिए मेरे माता-पिता ही पूरा संसार हैं। उनकी सेवा और पूजा ही सबसे बड़ा धर्म है। उनकी परिक्रमा करना ही पूरे ब्रह्मांड की परिक्रमा करने के समान है।”

यह सुनकर सभी देवता चकित रह गए। भगवान शिव और माता पार्वती ने आनंदित होकर गणेश जी को गले लगाया और कहा –
“गणेश! तुम्हारी बुद्धि और भक्ति सबसे श्रेष्ठ है। इसलिए आज से तुम ‘ज्ञान के देवता’ और ‘सबसे पहले पूज्य’ कहलाओगे।”

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कहानी से सीख

इस कथा से हमें यही शिक्षा मिलती है कि माता-पिता का स्थान पूरे संसार से बढ़कर है। उनकी सेवा और सम्मान ही सबसे बड़ा धर्म है। अगर हम उनके प्रति श्रद्धा और प्रेम रखते हैं, तो हमें किसी और तीर्थ की आवश्यकता नहीं होती।

भगवान गणेश जी ने हमें यह अनमोल संदेश दिया कि सच्ची भक्ति केवल देवताओं की पूजा में नहीं, बल्कि माता-पिता के चरणों की सेवा में छिपी है।

एक चोटी-सी कविता :

ना स्वर्ग की चाह, ना पृथ्वी का भ्रमण,
मुझे तो बस चाहिए माँ-पिता का संगण।
जहाँ स्नेह की छाया, और आशीष का दीप,
वहीं मेरा ब्रह्मांड, वहीं मेरा हर गीत।

शिव की शांति, पार्वती की ममता,
इनसे ही तो जन्मी मेरी संपूर्ण सत्ता।
दुनिया घूमे देव, पर मैं बैठा यहीं,
जहाँ प्रेम का अर्थ, और जीवन की महीन रेखा कहीं।

माता-पिता ही संसार, यही मेरी शिक्षा,
यही है सच्चा धर्म, यही है सच्ची दीक्षा।

निष्कर्ष(Conclusion)

“माता-पिता ही संसार गणेश” की यह कहानी हमें जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संदेश देती है – माता-पिता के बिना जीवन अधूरा है। अगर हम उनका आदर और सेवा करते हैं तो सफलता, समृद्धि और खुशियाँ अपने आप हमारे जीवन में आती हैं। यही कारण है कि गणेश जी को विघ्नहर्ता और सर्वप्रथम पूज्य माना जाता है।

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कुबेर को अहंकार की सीख गणेश जी

हिन्दू धर्म की कथाओं में भगवान गणेश जी को विघ्नहर्ता, बुद्धि के देवता और विनम्रता के प्रतीक के रूप में माना जाता है। उनकी कहानियाँ केवल मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि जीवन को गहरी शिक्षाएँ भी देती हैं। ऐसी ही एक प्रसिद्ध कहानी है—“कुबेर को अहंकार की सीख गणेश जी”। इस कथा से हमें यह समझने का अवसर मिलता है कि घमंड चाहे कितना भी बड़ा क्यों न हो, अंततः विनम्रता और सच्ची श्रद्धा के सामने उसका नाश हो जाता है।

कुबेर को अहंकार की सीख गणेश जी

कहानी : कुबेर को अहंकार की सीख

कुबेर जी को धन के देवता माना जाता है। उनके पास अपार सोना, हीरे-जवाहरात और असीम संपत्ति थी। इसी वैभव और ऐश्वर्य ने उनके भीतर अहंकार भर दिया। वे स्वयं को सबसे बड़ा दानी और शक्तिशाली समझने लगे। उनके मन में यह विचार घर कर गया कि इस संसार में उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता।

एक दिन कुबेर ने सोचा—“क्यों न मैं अपनी शक्ति और वैभव का प्रदर्शन करूँ। यदि मैंने देवताओं और ऋषि-मुनियों के सामने अपने ऐश्वर्य का प्रदर्शन किया तो सभी मेरे सम्मान में नतमस्तक हो जाएँगे।”

यही सोचकर कुबेर ने एक भव्य भोज का आयोजन करने का निश्चय किया। उन्होंने सभी देवताओं, ऋषियों और ब्रह्मांड के श्रेष्ठ प्राणियों को आमंत्रित किया। कुबेर का अहंकार इतना बढ़ चुका था कि उन्होंने सोचा—“यह भोज मेरी महानता का प्रमाण बनेगा।”

कुबेर ने अपने भोज के लिए भगवान शिव और माता पार्वती को भी आमंत्रित किया। लेकिन उनके मन में असली उद्देश्य अपनी महिमा दिखाना था, न कि श्रद्धा से भगवान को आमंत्रित करना।

शिव जी सब कुछ भली-भाँति जानते थे। वे कुबेर के अहंकार को भांप गए। उन्होंने सोचा—“कुबेर को अपने घमंड का परिणाम अवश्य मिलना चाहिए। लेकिन यह शिक्षा उन्हें सीधे-सीधे नहीं, बल्कि किसी माध्यम से दी जानी चाहिए।”

इसलिए उन्होंने पार्वती जी से कहा—“इस भोज में मैं स्वयं नहीं जाऊँगा। क्यों न हम अपने पुत्र गणेश को भेज दें।”
पार्वती जी ने भी इस बात को स्वीकार किया।

कुबेर को जैसे ही पता चला कि भगवान शिव और माता पार्वती की बजाय बालक गणेश भोज में आएंगे, तो वह थोड़ा निराश हुए। लेकिन फिर सोचा—“कोई बात नहीं, यह मेरे भोज की भव्यता देखकर अवश्य प्रभावित होंगे और सभी को बतायेंगे कि कुबेर से बड़ा कोई दानी नहीं है।”

भोज का दिन आया। कुबेर ने पूरे वैभव के साथ भोजन की व्यवस्था की। तरह-तरह के पकवान, मिठाइयाँ, फल और व्यंजन वहाँ सजे हुए थे।

गणेश जी भोजन के लिए बैठे और उन्होंने खाना शुरू किया।

गणेश जी खाते गए, खाते गए, और खाते ही गए। उन्होंने पलक झपकते ही सब व्यंजन समाप्त कर दिए। कुबेर ने तुरंत और भोजन मँगवाया, लेकिन गणेश जी की भूख शांत नहीं हुई।

अब गणेश जी ने घर की रसोई का सारा भोजन भी खा लिया। फिर वे घर में रखे अनाज, फल, मिठाइयाँ, यहाँ तक कि सोने-चाँदी के बर्तन तक खाने लगे।

कुबेर के पसीने छूटने लगे। उन्होंने सोचा—“ये बालक तो सब कुछ खा जाएंगे, मेरे पास जो भी है सब समाप्त कर देंगे।”

गणेश जी ने उनसे कहा—
“कुबेर! तुमने मुझे भोजन का निमंत्रण दिया है, पर मेरी भूख तो अनंत है। अब मुझे और भोजन दो, वरना मैं तुम्हें ही खा जाऊँगा।”

यह सुनकर कुबेर भयभीत हो गए। उनका घमंड चकनाचूर हो गया।

गणेश जी का पाठ

डरे-सहमे कुबेर तुरंत कैलाश पर्वत पहुँचे और भगवान शिव-पार्वती से प्रार्थना की—
“प्रभो! मैं बहुत बड़ा अपराधी हूँ। मैंने अहंकार में आकर अपनी संपत्ति का प्रदर्शन किया। कृपया मेरी रक्षा करें, वरना गणेश जी मुझे ही खा जाएंगे।”

शिव जी मुस्कराए और बोले—
“कुबेर, यह तुम्हारे अहंकार का परिणाम है। यदि तुम सच्ची श्रद्धा और विनम्रता से किसी को आमंत्रित करते, तो यह स्थिति नहीं आती। अब तुम गणेश जी को प्रसन्न करने के लिए विनम्रता से जाकर उन्हें भोजन अर्पित करो, लेकिन वह भोजन धन या वैभव से नहीं, बल्कि प्रेम और भक्ति से होना चाहिए।”

कुबेर ने माता पार्वती की आज्ञा से थोड़े से साधारण चावल और फल लेकर गणेश जी को भक्ति भाव से अर्पित किए।

गणेश जी ने प्रसन्न होकर वह भोजन स्वीकार कर लिया और उनकी भूख तुरंत शांत हो गई।

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कहानी से सीख

इस कथा से हमें यह सीख मिलती है कि—

अहंकार का अंत हमेशा विनम्रता से होता है।

भक्ति और सच्ची निष्ठा धन-संपत्ति से कहीं अधिक महान होती है।

भगवान को धन, वैभव या भोग नहीं चाहिए; उन्हें तो केवल श्रद्धा और प्रेम चाहिए।

गणेश जी हमें यह संदेश देते हैं कि घमंड करने से व्यक्ति पतन की ओर जाता है, जबकि विनम्रता उसे महानता की ओर ले जाती है।

निष्कर्ष(Conclusion)

“कुबेर को अहंकार की सीख गणेश जी” की यह कथा हमें जीवन की सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा देती है कि चाहे हमारे पास कितना भी धन या वैभव हो, हमें कभी भी उसका अहंकार नहीं करना चाहिए। भगवान गणेश जी का आशीर्वाद उसी पर बरसता है, जिसके हृदय में सच्ची श्रद्धा, भक्ति और विनम्रता होती है।

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